Tuesday, January 25, 2011

सावन

आय है ये सावन तो
ये है मन भावन तो
दो दिलों की डोरी देखो कैसे जुड़ने लगी

कल्पना के पंख लिए
वंदना के शंख लिए
मन की मयूरी देखो कैसे उड़ने लगी

मन की नाव डोल गई
हौले से ये बोल गई
गोरी चोरी चोरी देखो प्रेम करने लगी

मुख पे ये लाली देखो
लाल चुन्नी वाली देखो
लाल लाल फूलो की भी लाली हरने लगी

सपनो में झूल गई
अपनों को भूल गई
मन की तरंगे अटखेली करने लगी

स्वयं से बात करे,
आँखों में ये रात करे
सखियाँ  तो रोग ऐसा देख डरने लगी

बंद पलकों में वही
खुली पकले तो वही
अधखुली पलकें सारा भेद कहने लगी

संबोधन का बोध नहीं
कोई अवरोध नहीं
मन की डगर देखो कैसे चलने लगी

सपर्पण की आशा लिए
प्रेम वाली भाषा लिए
गोरी की तपस्या छंदों में ढलने लगी !!

Tuesday, September 28, 2010

शहर

रहता हूँ एक शहर में जहां
अट्टालिकाओं के माथे
अपने अहंकार में
आकाश की शून्यता को
क्षितिज समझ कर , चूम रहे  हैं ||

जहाँ खिड़की से दिखने वाला नीलापन ही
आसमान है |
जहां हर तरफ
बेजान हाड मांस के पुतले
सांस लेते घूम रहे हैं ||

जहाँ गाड़ियों  के शोर में दिल के आवाज़ भी
दब जाती है |
जहाँ लोग
अपने ही अरमानो  का खून पी कर
 मस्ती में झूम रहे हैं ||

आज उसी शहर में
उम्मीद की कुछ कोपलें
अंकुरित हुई हैं
जिनका जीवन
तुम्हारे और मेरे हांथों में है |
इन्हें मसलते वक़्त
बस
इतना याद रहे ,
कभी तुम्हारे सपने भी मासूम रहे हैं ||